कहानी संग्रह >> 10 प्रतिनिधि कहानियाँ (मैत्रेयी पुष्पा) 10 प्रतिनिधि कहानियाँ (मैत्रेयी पुष्पा)मैत्रेयी पुष्पा
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मैत्रेयी पुष्पा के द्वारा चुनी हुई दस सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’ सीरीज़ किताबघर प्रकाशन की एक
महत्वाकांक्षी कथा-योजना है, जिसमें हिंदी कथा-जगत के सभी शीर्षस्थ
कथाकारों को प्रस्तुत किया जा रहा है।
इस सीरीज़ में सम्मिलित कहानीकारों से यह अपेक्षा की गई है कि वे अपने संपूर्ण कथा-दौर से उन दस कहानियों का चयन करें, जो पाठकों, समीक्षकों तथा संपादकों के लिए मील का पत्थर रही हों तथा ये कहानियाँ भी हों, जिनकी वजह से उन्हें स्वयं को भी ‘कहानीकार’ होने का अहसास बना रहा हो। भूमिका-स्वरूप कथाकार का एक वक्तव्य भी इस सीरीज़ के लिए आमंत्रित किया गया है, जिसमें प्रस्तुत कहानियों को प्रतिनिधित्व सौपने की बात पर चर्चा करना अपेक्षित रहा है।
किताबघर प्रकाशन गौरवान्वित है कि इस सीरीज़ के लिए सभी कथाकारों का उसे सहज सहयोग मिला है। इस सीरीज़ की महत्त्वपूर्ण कथाकार मैत्रेयी पुष्पा ने प्रस्तुत संकलन में अपनी जिन दस कहानियों को प्रस्तुत किया है, वे हैं: ‘फैसला’, ‘तुम किसकी हो बिन्नी’, ‘उज्रदारी’, ‘छुटकारा’, ‘गोमा हँसती है’, ‘बिछुड़े हुए’, ‘पगला गई है भागवती’, ‘ताला खुला है पापा’, ‘रिजक’, तथा ‘राय प्रवीण’।
हमें विश्वास है कि इस सीरीज़ के माध्यम से पाठक सुविख्यात लेखिका मैत्रेयी पुष्पा की प्रतिनिधि कहानियों को एक ही जिल्द में पाकर सुखद पाठकीय संतोष का अनुभव करेंगे।
इस सीरीज़ में सम्मिलित कहानीकारों से यह अपेक्षा की गई है कि वे अपने संपूर्ण कथा-दौर से उन दस कहानियों का चयन करें, जो पाठकों, समीक्षकों तथा संपादकों के लिए मील का पत्थर रही हों तथा ये कहानियाँ भी हों, जिनकी वजह से उन्हें स्वयं को भी ‘कहानीकार’ होने का अहसास बना रहा हो। भूमिका-स्वरूप कथाकार का एक वक्तव्य भी इस सीरीज़ के लिए आमंत्रित किया गया है, जिसमें प्रस्तुत कहानियों को प्रतिनिधित्व सौपने की बात पर चर्चा करना अपेक्षित रहा है।
किताबघर प्रकाशन गौरवान्वित है कि इस सीरीज़ के लिए सभी कथाकारों का उसे सहज सहयोग मिला है। इस सीरीज़ की महत्त्वपूर्ण कथाकार मैत्रेयी पुष्पा ने प्रस्तुत संकलन में अपनी जिन दस कहानियों को प्रस्तुत किया है, वे हैं: ‘फैसला’, ‘तुम किसकी हो बिन्नी’, ‘उज्रदारी’, ‘छुटकारा’, ‘गोमा हँसती है’, ‘बिछुड़े हुए’, ‘पगला गई है भागवती’, ‘ताला खुला है पापा’, ‘रिजक’, तथा ‘राय प्रवीण’।
हमें विश्वास है कि इस सीरीज़ के माध्यम से पाठक सुविख्यात लेखिका मैत्रेयी पुष्पा की प्रतिनिधि कहानियों को एक ही जिल्द में पाकर सुखद पाठकीय संतोष का अनुभव करेंगे।
कहानियों से पहले
जिंदगी को इस तरह नहीं लिया जा सकता कि वह यहाँ से शुरू है और यहाँ खत्म,
बहुत सोचने के बाद मेरा यही विचार बना, क्योंकि जहाँ से शुरू का छोर
पकड़ती हूँ, वहीं डोर छिटक जाती है। क्या जन्म से मनुष्य का जीवन शुरू
होता है ? नहीं, तब तो उसका जीवन माता के हाथों होता है, जिनमें पल-बढ़कर
वह कुछ ऐसी बातें सीखता है, जो उसके जीने के लिए जरूरी होता हैं। तब क्या
बाल्यकाल से उसकी जिंदगी की शुरुआत मानी जाए, जब वह खुद अपने जरूरी कार्य
करने लायक हो जाता है ? नहीं, तब भी उसके आसपास परिजन और गुरुजन होते हैं,
जो उसे इस संसार के बारे में जाने-अनजाने बताते रहते हैं और खतरों से सचेत
करते हैं। यानी उसने भी अपने जीवन की शुरुआत अपने ढंग से, अपनी सामर्थ्य
से नहीं की होती। फिर उसका समय कौन-सा होता है ?
तब तक समय बढ़ते-बीतते अँधेरे बढ़ने लगते हैं और काल का काला पक्ष जीवन को ढँकने लगता है, ऐसा महसूस होता है, जैसे उजाले की एक महीन किरण खोजने में ही हम शेष हो जाएँगे। लेकिन मैंने साँसों और दृष्टि को मिलाकर ऐसी रोशनी पैदा करनी चाही थी, जैसी सूरज की रोशनी होती है। स्त्री के जीवन का सच सूरज ही क्यों है ? वह सूरज, जिसने कुंती को छला और वह आज तक बदनाम है। तब सूरज से मेरा विश्वास हट गया और चन्द्रमा की नीयत तो मैं पहले ही जान गई थी। वह चाँदनी की नरम शीतल छाया पसारता हुआ पवित्र सितारा है, जिसका गुणगान करते हुए हम स्त्रियाँ समाधियों में परिवर्तित होती रही हैं, उनके मृत्यु गीत पर देवता रीझे हैं।
मेरा मन देवताओं के आचरण से खट्टा हो गया, क्योंकि वे सदा से पुरुष-सत्ता को जमाने में लगे रहे हैं। शायद मेरा जीवन उस बचपन से शुरू होता है, जो माँ के साये में न था, पिता का संरक्षण जिसे प्राप्त न था। अकेला एकाकी व्यक्ति जैसे अपनी निजी धारणाएँ बनाता है, मैं भी उसी तरह सोच सकती थी। आजादी के दो-तीन वर्ष पहले पैदा होने वाली लड़की के रूप में मैं आजादी के बाद ऐसी किशोरी में विकसित होती जाती थी, जिसे पता चल गया था कि उसके अजेय शैशव ने किसी गुलामी, किसी दासता का असर नहीं लिया। बच्चा हर बंधन तोड़ डालने में विश्वास रखता है। मैं भी समझौतों से अनभिज्ञ, दहशत से कोसों दूर ‘स्वतंत्र खेल’ की हिमायती-सी बिना शर्म संकोच के बढ़ती जा रही थी। निश्चित ही गाँव में कस्बाई मानसिकता वाला मध्यवर्ग न था, जो लड़की के संस्कारों में दीक्षित करता। किसानों के परिवार, जिनके ऊपर अब किसी जमींदार का पहरा न था, किसी कारिंदा का भय न था, बस इतना जानते थे कि पंडित जवाहरलाल नेहरू हमारे देश के प्रधानमंत्री हैं, जिन्हें गांधी जी ने जिम्मेदार समझकर देश की बागडोर सौंपी है, वे योग्य हैं, योग्यता से काम करेंगे। योग्यता माने पक्षपातरहित हैसियत वाला आदमी, जिसकी क्षमता ईश्वर की तरह आपार हो। ऐसे राजकाज के आधार पर हमारे गाँव आजाद थे और हम बच्चे तो इस देश को सँभालकर रखने वाले नागरिक होने का सपना देखने लगे थे, क्योंकि गांधीजी तूफान से किश्ती निकालकर लाए थे।
आजादी का जयघोष और पंचवर्षीय योजनाओं के अंतर्गत प्रगति के वादे। हम तरुण वृक्ष से प्रजातंत्र के विस्तार में उस ताजा ओस से भीगे समय को मन पर अंकित करते जा रहे थे, जिसे याद करके आज भी स्फूर्त हुआ जा सकता है। मगर युवा चाहत के रास्ते में बासीपन आ गया कि देवताओं से हमारा मन खट्टा हुआ। पंचायती चुनाव लोकतंत्र का नया स्तंभ, मगर उसके जरिए ताजपोशी हुई पुराने जमींदारो की। जिस हवेली के आगे गाँव के असरदार लोग न्याय के लिए जुड़ते (जो कि जमींदार की मंशा के अनुसार ही होता)। कसूरवार पाकर किसान और भूमिहीनों को गोला-लाठी की सजा देते, फसल के दिनों में खलिहानों से अनाज इसी हवेली के अहाते में लगानस्वरूप इकट्ठा होता। आजाद देश और लोकतंत्र के शासन में भी उसी हवेली के दरवाजे पर पंचायती रेडियो बजता। फर्क इतना ही कि अंग्रेजी राज में जिस जमींदार के कोड़े खाकर जीते-मरते रहे, आज उसके द्वार की धरती पर रेडियो सुनने के हकदार हुए कि कृपापात्र बने, जमींदार ही जाने। किसान तो बस इतना ही जानते थे कि पुराने मालिक को अपना वोट देकर उन्होंने स्वामिभक्ति निभाई है। मैं किसान की बेटी देख रही थी गाँव की तस्वीर। पुराने दंडित लोगों का समूह गाँव होता है, जिसमें अब भी वही दंडविधान चला आ रहा है या गाँव का दूसरा नाम है-दरिद्रता और लाचारी ?
शायद मेरा समय तब से शुरू होता है, जब मैं यह समझने लगी कि गाँव में स्त्रियाँ तो मनुष्यों की गिनती में हैं ही नहीं, अलबत्ता वोट देने ले जाई जाती हैं। फिर आजादी की लड़ाई में किन स्त्रियों की भागीदारी थी ? जिनने भी भाग लिया हो वे निश्चित ही किसान-पत्नियाँ नहीं थीं। हो सकता है, ऐसे घरानों से वे स्त्रियाँ आई हों, जिनेक यहाँ शर्म हया की शालीनता मानी जाती है। इसलिए ही वे फिर घरों में समा गईं। उन्होंने अपने पुरुषों के धर्म में सहयोग किया, क्योंकि पतिधर्म ही उनका धर्म होता है।
तब हमारा समय वहाँ से शुरू नहीं होता, जहाँ हमने स्वतंत्रता का सिर्फ नाम सुना था और हमारा वजूद केवल इतना था कि हम जीवित थे। स्त्री होने के रास्ते में लड़की को इतिहास का शिकंजा जकड़ने लगा तो तमाम सवाल अकुलाने लगे। स्त्री-पुरुष के शारीरिक आवेग-संवेगों की प्राकृतिक माँग का विभाजन पक्षपात के साथ हुआ है। इसलिए शाबाशी और दंडविधान के बँटवारे की प्रक्रिया में लड़की को हलका समझा जाएगा, यह सत्य हमारी समझ में आने लगा।
हो सकता है, मेरा सही समय उस क्षण के गर्भ से निकला हो, तब मैंने पाया कि मैं धीरे-धीरे अपने नैसर्गिक अधिकारों से नीचे धकेली जा रही हूँ, जहाँ नीची नजर करके सब कुछ सुनना सहना है। धरती पर रास्ते बहुत सँकरे हो गए और आसमान पर ऐसा पर्दा कि आकाश ही गायब लगे। तब, अपनी उड़ान के लिए हवा, देखने के लिए रोशनी और तैरकर पार जाने के लिए जलधारा...सबके सब साधन झूठे पड़ गए। भीतर ही भीतर तब अभावों, आघातों से पैदा दर्द की लहर उठती थी जिसमें मुझे हर हालत में डूबना था। अपना समय ऐसा घातक है...याद यही रह गया कि मैंने स्त्री-रूप में जन्म लिया है, यही मेरा जीवन है, सामान्य जीवन। तब मेरा समय वही हो सकता है, जब मैंने अपनी जिंदगी को स्वीकार करते हुए धैर्य धारण कर लिया।
सच में हमारा समय एक धैर्यवान, बेजुबान, शीलवान स्त्री का समय था। इस समय स्त्री-शिक्षा की घोषणाएँ की गई, सहशिक्षा भी लागू हुई। घूँघट, पर्दे और बुर्के का लिखित विरोध विकास की योजनाओं के तहत सनसना रहा था। अनमेल विवाह की भर्त्सना की जा रही थी। बाल विवाह और सती प्रथा तो कब के अभिशाप के रूप में प्रचारित हो चुके थे। परिवार नियोजन का भोंपू बजने लगा। बेबस शारीरिक संबंधों और अबाध कामलिप्सा से औरत को मुक्ति मिल जाएगी, यह आशा दिन पर दिन बलवती होने लगी। अब तक पुरुष की मनमानी के चलते ही तो मुर्दनी चढ़े चेहरों वाली स्त्रियाँ भारतीय स्त्रियों की प्रतिनिधिरूप हैं, जो किसी भी देश की दुर्दशा को उजागर करती हैं। यह सब खत्म होने वाला है।
सब कुछ अच्छा होने वाला था, मगर घर की चौखट के भीतर ही मर-खप जाना हमारी जीवन सिद्धि रही। हम शास्त्रसम्मत विधानों के पार नहीं जा सकते, भले शास्त्रों को हमने पढ़ा हो और एतराज जताया हो। फिर देश के विकास में स्त्री की उन्नति की घोषणाएँ हमारा जीवन कैसे सुधार सकती थीं। जब तक कि वे व्यवहार रूप में परिवर्तित न की जाएँ ? मगर इहलोकवासियों में इतना साहस न था कि परलोक गए पितामहों और पिताओं को नाराज कर दें, महज एक औरत के वास्ते। सच में वे दावे पितरों की तरह मृत साबित हुए, जैसा कि समाज ने हमारा जीवन बना रखा था। और फिर हमने मान लिया यह हमारा समय नहीं...
देश आजादी की स्वर्ण जयंती मनाने लगा, हमारी उम्र अर्द्धशती पार कर गई, मगर स्त्री अब भी अशिक्षा, दहेज और चाल-चलन की शुचिता की सूली पर चढ़ी हुई अपनी जिंदगी की भीख माँग रही थी। जैट और कंप्यूटर युग की तकनीकी प्रगति के युग में सामाजिक सत्ता का सामंती वर्चस्व केवल अपना मुखौटा बदल पाया, चेहरा नहीं। प्रमाण इतना ही कि पाँच हजार वर्ष पूर्व का विधान आज तक संशोधित नहीं हुआ तो संविधान क्या बदलता ? डॉ. अंबेडकर ने शूद्रों की नियत बदल दी, मगर आजादी में भाग लेने वाली स्त्रियाँ कही नहीं थीं कि स्त्री की बात कहतीं। या उनमें अभी एक शूद्र जैसा साहस न था, क्योंकि पुरुष किसी वर्ण का हो, पुरुष तो है ही, स्त्री से ज्यादा ताकतवर, उससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण माना जाने वाला। बात यह भी कि उनका वर्ण नजरअंदाज किया जा सकता है। स्त्री शरीर वाली स्त्री अपना चोला कैसे बदले ? दलित पुरुष समूह में खड़े कर दिए जाएँ, कैसे पहचाने जा सकते हैं ? जबकि स्त्री अलग पहचान में आ जाएगी। शायद इसलिए ही स्त्रियों ने अपनी स्वतंत्रता के बारे में कुछ नहीं सोचा।
फिर मेरा समय यह भी नहीं क्योंकि इस समय की स्त्री की योग्यता पर भरोसा नहीं। उसकी क्षमता मानो कोमल, ललित और भावुक होने में ही निहित है। सुरक्षा की आड़ में पुरुष ने उसे बाँध लिया, जैसे पशु को बाँध लेते हैं। इतिहास फिर आड़े आ गया, पौराणिक युग की पंचकन्याएँ- अहिल्या, सीता, तारा, मंदोदरी और द्रौपदी विवेकशील स्त्रियाँ थीं, मगर उनकी ख्याति अपने पतिव्रत धर्म के कारण है। उनके स्वामियों ने उनके विचार, राय और फैसलों को कभी महत्त्व नहीं दिया बल्कि आसपास के मूर्ख लोगों के आक्षेपों पर उन्हें बलिदान करते रहे। यही इतिहास शिला की तरह आज भी स्त्रियों पर लदा है। इसलिए ही परिवार की इज्जत-आबरू और मर्यादा वाले पलड़े के बराबर में हमारी चारित्रिक शुचिता नापी तौली जाती है। तब फिर कोई औरत अपनी विचार शक्ति और बुद्धिपरकता को कैसे व्यावहारिक बनाए ?
हम अपनी बात कहने के लिए कसम खाते हैं कि बँधी-बँधाई दिनचर्या, चूल्हे-चौके के एकरस ढर्रे पर चलते-चलते हम ऊब गए हैं, क्योंकि हम जड़ नहीं गतिवान मनुष्य की नस्ल की स्त्री हैं। मगर दास के कहे मालिक उसके गले से रस्सी का फंदा नहीं उतारता। हमें अपनी तरह की करोड़ों स्त्रियों की कहानी कहनी होगी, जिसे अब तक पुरुष कहता आया है, अपनी तरह से।
कलम हाथ में लेकर मैंने सोचा, समय किसी के दिए नहीं मिलता, वह खुद अपनाना पड़ता है। अपने समय को अपनी तरह स्त्री-कथा की इबारत में उतारो। यों तो अध्ययन-मनन के चलते मनोविश्लेषकों ने स्त्री-पुरुष के मनोभावों और दैहिक सूत्रों के हिसाब से उनका स्वभावगत प्रतिपादन किया है, तो समाज-सुधारकों ने सम्यक व्यवहार और समदृष्टि की बात कहकर गैर-बराबरी को खत्म करना चाहा है, पर ये व्याख्याएँ निहायत शीतल दिलासाएँ हैं कि व्यक्ति अपने जीवन-ताप को विष की तरह पूरी ताकत लगाकर पी जाए और बर्दाश्त करे। क्या विषपान करने वाली नीलकंठी स्त्रियों के साथ धोखा नहीं है यह? वे ज्यों की त्यों खाली बर्तन-सी पड़ी रहीं। स्वामियों के हाथ में अदृश्य कोड़ा था और उनकी पीठ नंगी थी। फिर कैसे समझ में न आता कि घड़ी की सुई टिक-टिक करती बढ़ती रहे, घंटा-मिनट बीतते रहें, समय नहीं बीतता, क्योंकि स्थितियाँ नहीं बदलतीं। जानलेवा घड़ियों को बदलने वाला व्यक्ति ही होता है।
जो पूरी तरह से अपने समय या कुसमय का अधिष्ठाता है। तब इस सच्चाई को शर्म-लिहाज के पर्दे में कैसे छिपाएँ कि स्त्री जो कुछ सोचती है, यदि उसे उजागर भी करती है तो उसका ‘सोचा हुआ’ सामाजिक अपराध के खाते में दर्ज होता है। तो फिर जान लीजिए कि एक प्रतिरोधी प्रक्रिया जन्म लेती है, जिसका अभिप्राय है-अपनी इच्छाओं को कुचलकर जीने का विधान हमको मंजूर नहीं। हमारा मन जो कहता है, इंद्रियाँ जिस सुख की आकांक्षा करती हैं, मनुष्य होने के नाते वे हमारे कुविचार और कुचेष्टाएँ नहीं, जन्मसिद्ध अधिकार हैं। आपके कायदे बड़े खूखाँर हैं, जो हमें शील और पवित्रता की रक्षा में अपनी नैसर्गिक इच्छाओं का दमन और अंतर्मन को ध्वस्त करते रहने पर मजबूर किए रहते हैं। इसी तरह मन को खारिज करते हुए अपनी विनाशलीला में ही हमें जीने की मोहलत मिलती है, क्योंकि परिवेश से सुलह ही हमारी सुरक्षा की शर्त है।
यदि समय हमारी चेतना की मृत्यु का आकांक्षी है तो हम इस समय को अपना नहीं कहते। बस, इसीलिए हम स्त्रियों का रवैया हो गया-वक्त डाल-डाल तो हम पात-पात। और तभी स्त्री का मन दो पाटों में बँट गया। जो सोचा, वह किया नहीं, जो किया, उसके प्रति कोई रुचि नहीं। उसका सार्वजानिक रूप से किया गया आचरण समझिए कि इस पाखंड़ी समाज के प्रति ढोंग है। अभिनय में उसका कोई सानी नहीं, कबीर जरूर यह बात जानते होंगे, तभी न कहा कि–माया महाठगिनी हम जानी। मगर यह ठग विद्या उसने सीखी कहाँ से? नौकर, दास, गुलाम, मालिक राजा से बहुत कुछ सीख लेता है और उसके अलावा अतिरिक्त चतुराई बरतता है, क्योंकि उसे मालिक का व्यवहार अपनी गुलामी में रहते हुए करना है। इसीलिए औरत का संसार एकदम निजी होता है। वहाँ उससे दासता, एकनिष्ठता और भक्ति-भावना की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। मौका पाते ही वह खुद को अपनी तरह से सँवारने लगती है। अपनी देह में बजते रागों को सुन सुनकर उन्हें मनचाही लय देती है। काया से चुपके-चुपके निकलकर कब दूसरों के भीतर प्रवेश कर जाना है, तय कर लेती है। निर्बाध जलधारा सी खुद को उलीच डालती है, कौन रोक सकता है?
ये एकांत कोने, मन के मठ कहाँ से खोज लिए? वह तो अकेली खाली बर्तन सी बजा करती थी तो कभी छाती के भीतर कँटीला झाड़ उगा हुआ पाती थी। फिर कछुए जैसा कठिन खोल जीवन...सिमटे रहने की तकलीफ में सिकुड़ती हुई किस सफर पर निकल पड़ती है ? जुल्म, क्षमा, भय, और हिम्मत जैसी मानसिक सच्चाइयाँ उसके संग-संग चलती हैं। सफर में जब-जब खून तपता है, वह पसीने के साथ बह उठती है। फिर अपने ही नमक के रंगीन सरोवर में डूब जाती है। परिवारी लोगों ने जाने-पहचाने घावों पर मरहम लगाया था, टेप चिपकाई थी, जिस पर तीन शब्द अतिरिक्त भाषा में लिखे हुए थे-त्याग, प्यार और ममत्व। त्याग का झिलमिलाता शब्द, घर की मालकिन का आदर, बेगारिन का अनकहा अपमान...सब कुछ आँचल में है, मगर उसका अर्थ क्या ? अर्थ है-हर बात में भय!
‘भय ही छोड़ना है’ कहीं से आवाज आई। आकाशवाणी तो देवता करते हैं और देवता स्त्री के विषय में कुछ नहीं जानते। यह आवाज किसी स्त्री की ही हो सकती है। किसकी? रेड इंडियन कवयित्री ज्वाँय हार्जो की-
तब तक समय बढ़ते-बीतते अँधेरे बढ़ने लगते हैं और काल का काला पक्ष जीवन को ढँकने लगता है, ऐसा महसूस होता है, जैसे उजाले की एक महीन किरण खोजने में ही हम शेष हो जाएँगे। लेकिन मैंने साँसों और दृष्टि को मिलाकर ऐसी रोशनी पैदा करनी चाही थी, जैसी सूरज की रोशनी होती है। स्त्री के जीवन का सच सूरज ही क्यों है ? वह सूरज, जिसने कुंती को छला और वह आज तक बदनाम है। तब सूरज से मेरा विश्वास हट गया और चन्द्रमा की नीयत तो मैं पहले ही जान गई थी। वह चाँदनी की नरम शीतल छाया पसारता हुआ पवित्र सितारा है, जिसका गुणगान करते हुए हम स्त्रियाँ समाधियों में परिवर्तित होती रही हैं, उनके मृत्यु गीत पर देवता रीझे हैं।
मेरा मन देवताओं के आचरण से खट्टा हो गया, क्योंकि वे सदा से पुरुष-सत्ता को जमाने में लगे रहे हैं। शायद मेरा जीवन उस बचपन से शुरू होता है, जो माँ के साये में न था, पिता का संरक्षण जिसे प्राप्त न था। अकेला एकाकी व्यक्ति जैसे अपनी निजी धारणाएँ बनाता है, मैं भी उसी तरह सोच सकती थी। आजादी के दो-तीन वर्ष पहले पैदा होने वाली लड़की के रूप में मैं आजादी के बाद ऐसी किशोरी में विकसित होती जाती थी, जिसे पता चल गया था कि उसके अजेय शैशव ने किसी गुलामी, किसी दासता का असर नहीं लिया। बच्चा हर बंधन तोड़ डालने में विश्वास रखता है। मैं भी समझौतों से अनभिज्ञ, दहशत से कोसों दूर ‘स्वतंत्र खेल’ की हिमायती-सी बिना शर्म संकोच के बढ़ती जा रही थी। निश्चित ही गाँव में कस्बाई मानसिकता वाला मध्यवर्ग न था, जो लड़की के संस्कारों में दीक्षित करता। किसानों के परिवार, जिनके ऊपर अब किसी जमींदार का पहरा न था, किसी कारिंदा का भय न था, बस इतना जानते थे कि पंडित जवाहरलाल नेहरू हमारे देश के प्रधानमंत्री हैं, जिन्हें गांधी जी ने जिम्मेदार समझकर देश की बागडोर सौंपी है, वे योग्य हैं, योग्यता से काम करेंगे। योग्यता माने पक्षपातरहित हैसियत वाला आदमी, जिसकी क्षमता ईश्वर की तरह आपार हो। ऐसे राजकाज के आधार पर हमारे गाँव आजाद थे और हम बच्चे तो इस देश को सँभालकर रखने वाले नागरिक होने का सपना देखने लगे थे, क्योंकि गांधीजी तूफान से किश्ती निकालकर लाए थे।
आजादी का जयघोष और पंचवर्षीय योजनाओं के अंतर्गत प्रगति के वादे। हम तरुण वृक्ष से प्रजातंत्र के विस्तार में उस ताजा ओस से भीगे समय को मन पर अंकित करते जा रहे थे, जिसे याद करके आज भी स्फूर्त हुआ जा सकता है। मगर युवा चाहत के रास्ते में बासीपन आ गया कि देवताओं से हमारा मन खट्टा हुआ। पंचायती चुनाव लोकतंत्र का नया स्तंभ, मगर उसके जरिए ताजपोशी हुई पुराने जमींदारो की। जिस हवेली के आगे गाँव के असरदार लोग न्याय के लिए जुड़ते (जो कि जमींदार की मंशा के अनुसार ही होता)। कसूरवार पाकर किसान और भूमिहीनों को गोला-लाठी की सजा देते, फसल के दिनों में खलिहानों से अनाज इसी हवेली के अहाते में लगानस्वरूप इकट्ठा होता। आजाद देश और लोकतंत्र के शासन में भी उसी हवेली के दरवाजे पर पंचायती रेडियो बजता। फर्क इतना ही कि अंग्रेजी राज में जिस जमींदार के कोड़े खाकर जीते-मरते रहे, आज उसके द्वार की धरती पर रेडियो सुनने के हकदार हुए कि कृपापात्र बने, जमींदार ही जाने। किसान तो बस इतना ही जानते थे कि पुराने मालिक को अपना वोट देकर उन्होंने स्वामिभक्ति निभाई है। मैं किसान की बेटी देख रही थी गाँव की तस्वीर। पुराने दंडित लोगों का समूह गाँव होता है, जिसमें अब भी वही दंडविधान चला आ रहा है या गाँव का दूसरा नाम है-दरिद्रता और लाचारी ?
शायद मेरा समय तब से शुरू होता है, जब मैं यह समझने लगी कि गाँव में स्त्रियाँ तो मनुष्यों की गिनती में हैं ही नहीं, अलबत्ता वोट देने ले जाई जाती हैं। फिर आजादी की लड़ाई में किन स्त्रियों की भागीदारी थी ? जिनने भी भाग लिया हो वे निश्चित ही किसान-पत्नियाँ नहीं थीं। हो सकता है, ऐसे घरानों से वे स्त्रियाँ आई हों, जिनेक यहाँ शर्म हया की शालीनता मानी जाती है। इसलिए ही वे फिर घरों में समा गईं। उन्होंने अपने पुरुषों के धर्म में सहयोग किया, क्योंकि पतिधर्म ही उनका धर्म होता है।
तब हमारा समय वहाँ से शुरू नहीं होता, जहाँ हमने स्वतंत्रता का सिर्फ नाम सुना था और हमारा वजूद केवल इतना था कि हम जीवित थे। स्त्री होने के रास्ते में लड़की को इतिहास का शिकंजा जकड़ने लगा तो तमाम सवाल अकुलाने लगे। स्त्री-पुरुष के शारीरिक आवेग-संवेगों की प्राकृतिक माँग का विभाजन पक्षपात के साथ हुआ है। इसलिए शाबाशी और दंडविधान के बँटवारे की प्रक्रिया में लड़की को हलका समझा जाएगा, यह सत्य हमारी समझ में आने लगा।
हो सकता है, मेरा सही समय उस क्षण के गर्भ से निकला हो, तब मैंने पाया कि मैं धीरे-धीरे अपने नैसर्गिक अधिकारों से नीचे धकेली जा रही हूँ, जहाँ नीची नजर करके सब कुछ सुनना सहना है। धरती पर रास्ते बहुत सँकरे हो गए और आसमान पर ऐसा पर्दा कि आकाश ही गायब लगे। तब, अपनी उड़ान के लिए हवा, देखने के लिए रोशनी और तैरकर पार जाने के लिए जलधारा...सबके सब साधन झूठे पड़ गए। भीतर ही भीतर तब अभावों, आघातों से पैदा दर्द की लहर उठती थी जिसमें मुझे हर हालत में डूबना था। अपना समय ऐसा घातक है...याद यही रह गया कि मैंने स्त्री-रूप में जन्म लिया है, यही मेरा जीवन है, सामान्य जीवन। तब मेरा समय वही हो सकता है, जब मैंने अपनी जिंदगी को स्वीकार करते हुए धैर्य धारण कर लिया।
सच में हमारा समय एक धैर्यवान, बेजुबान, शीलवान स्त्री का समय था। इस समय स्त्री-शिक्षा की घोषणाएँ की गई, सहशिक्षा भी लागू हुई। घूँघट, पर्दे और बुर्के का लिखित विरोध विकास की योजनाओं के तहत सनसना रहा था। अनमेल विवाह की भर्त्सना की जा रही थी। बाल विवाह और सती प्रथा तो कब के अभिशाप के रूप में प्रचारित हो चुके थे। परिवार नियोजन का भोंपू बजने लगा। बेबस शारीरिक संबंधों और अबाध कामलिप्सा से औरत को मुक्ति मिल जाएगी, यह आशा दिन पर दिन बलवती होने लगी। अब तक पुरुष की मनमानी के चलते ही तो मुर्दनी चढ़े चेहरों वाली स्त्रियाँ भारतीय स्त्रियों की प्रतिनिधिरूप हैं, जो किसी भी देश की दुर्दशा को उजागर करती हैं। यह सब खत्म होने वाला है।
सब कुछ अच्छा होने वाला था, मगर घर की चौखट के भीतर ही मर-खप जाना हमारी जीवन सिद्धि रही। हम शास्त्रसम्मत विधानों के पार नहीं जा सकते, भले शास्त्रों को हमने पढ़ा हो और एतराज जताया हो। फिर देश के विकास में स्त्री की उन्नति की घोषणाएँ हमारा जीवन कैसे सुधार सकती थीं। जब तक कि वे व्यवहार रूप में परिवर्तित न की जाएँ ? मगर इहलोकवासियों में इतना साहस न था कि परलोक गए पितामहों और पिताओं को नाराज कर दें, महज एक औरत के वास्ते। सच में वे दावे पितरों की तरह मृत साबित हुए, जैसा कि समाज ने हमारा जीवन बना रखा था। और फिर हमने मान लिया यह हमारा समय नहीं...
देश आजादी की स्वर्ण जयंती मनाने लगा, हमारी उम्र अर्द्धशती पार कर गई, मगर स्त्री अब भी अशिक्षा, दहेज और चाल-चलन की शुचिता की सूली पर चढ़ी हुई अपनी जिंदगी की भीख माँग रही थी। जैट और कंप्यूटर युग की तकनीकी प्रगति के युग में सामाजिक सत्ता का सामंती वर्चस्व केवल अपना मुखौटा बदल पाया, चेहरा नहीं। प्रमाण इतना ही कि पाँच हजार वर्ष पूर्व का विधान आज तक संशोधित नहीं हुआ तो संविधान क्या बदलता ? डॉ. अंबेडकर ने शूद्रों की नियत बदल दी, मगर आजादी में भाग लेने वाली स्त्रियाँ कही नहीं थीं कि स्त्री की बात कहतीं। या उनमें अभी एक शूद्र जैसा साहस न था, क्योंकि पुरुष किसी वर्ण का हो, पुरुष तो है ही, स्त्री से ज्यादा ताकतवर, उससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण माना जाने वाला। बात यह भी कि उनका वर्ण नजरअंदाज किया जा सकता है। स्त्री शरीर वाली स्त्री अपना चोला कैसे बदले ? दलित पुरुष समूह में खड़े कर दिए जाएँ, कैसे पहचाने जा सकते हैं ? जबकि स्त्री अलग पहचान में आ जाएगी। शायद इसलिए ही स्त्रियों ने अपनी स्वतंत्रता के बारे में कुछ नहीं सोचा।
फिर मेरा समय यह भी नहीं क्योंकि इस समय की स्त्री की योग्यता पर भरोसा नहीं। उसकी क्षमता मानो कोमल, ललित और भावुक होने में ही निहित है। सुरक्षा की आड़ में पुरुष ने उसे बाँध लिया, जैसे पशु को बाँध लेते हैं। इतिहास फिर आड़े आ गया, पौराणिक युग की पंचकन्याएँ- अहिल्या, सीता, तारा, मंदोदरी और द्रौपदी विवेकशील स्त्रियाँ थीं, मगर उनकी ख्याति अपने पतिव्रत धर्म के कारण है। उनके स्वामियों ने उनके विचार, राय और फैसलों को कभी महत्त्व नहीं दिया बल्कि आसपास के मूर्ख लोगों के आक्षेपों पर उन्हें बलिदान करते रहे। यही इतिहास शिला की तरह आज भी स्त्रियों पर लदा है। इसलिए ही परिवार की इज्जत-आबरू और मर्यादा वाले पलड़े के बराबर में हमारी चारित्रिक शुचिता नापी तौली जाती है। तब फिर कोई औरत अपनी विचार शक्ति और बुद्धिपरकता को कैसे व्यावहारिक बनाए ?
हम अपनी बात कहने के लिए कसम खाते हैं कि बँधी-बँधाई दिनचर्या, चूल्हे-चौके के एकरस ढर्रे पर चलते-चलते हम ऊब गए हैं, क्योंकि हम जड़ नहीं गतिवान मनुष्य की नस्ल की स्त्री हैं। मगर दास के कहे मालिक उसके गले से रस्सी का फंदा नहीं उतारता। हमें अपनी तरह की करोड़ों स्त्रियों की कहानी कहनी होगी, जिसे अब तक पुरुष कहता आया है, अपनी तरह से।
कलम हाथ में लेकर मैंने सोचा, समय किसी के दिए नहीं मिलता, वह खुद अपनाना पड़ता है। अपने समय को अपनी तरह स्त्री-कथा की इबारत में उतारो। यों तो अध्ययन-मनन के चलते मनोविश्लेषकों ने स्त्री-पुरुष के मनोभावों और दैहिक सूत्रों के हिसाब से उनका स्वभावगत प्रतिपादन किया है, तो समाज-सुधारकों ने सम्यक व्यवहार और समदृष्टि की बात कहकर गैर-बराबरी को खत्म करना चाहा है, पर ये व्याख्याएँ निहायत शीतल दिलासाएँ हैं कि व्यक्ति अपने जीवन-ताप को विष की तरह पूरी ताकत लगाकर पी जाए और बर्दाश्त करे। क्या विषपान करने वाली नीलकंठी स्त्रियों के साथ धोखा नहीं है यह? वे ज्यों की त्यों खाली बर्तन-सी पड़ी रहीं। स्वामियों के हाथ में अदृश्य कोड़ा था और उनकी पीठ नंगी थी। फिर कैसे समझ में न आता कि घड़ी की सुई टिक-टिक करती बढ़ती रहे, घंटा-मिनट बीतते रहें, समय नहीं बीतता, क्योंकि स्थितियाँ नहीं बदलतीं। जानलेवा घड़ियों को बदलने वाला व्यक्ति ही होता है।
जो पूरी तरह से अपने समय या कुसमय का अधिष्ठाता है। तब इस सच्चाई को शर्म-लिहाज के पर्दे में कैसे छिपाएँ कि स्त्री जो कुछ सोचती है, यदि उसे उजागर भी करती है तो उसका ‘सोचा हुआ’ सामाजिक अपराध के खाते में दर्ज होता है। तो फिर जान लीजिए कि एक प्रतिरोधी प्रक्रिया जन्म लेती है, जिसका अभिप्राय है-अपनी इच्छाओं को कुचलकर जीने का विधान हमको मंजूर नहीं। हमारा मन जो कहता है, इंद्रियाँ जिस सुख की आकांक्षा करती हैं, मनुष्य होने के नाते वे हमारे कुविचार और कुचेष्टाएँ नहीं, जन्मसिद्ध अधिकार हैं। आपके कायदे बड़े खूखाँर हैं, जो हमें शील और पवित्रता की रक्षा में अपनी नैसर्गिक इच्छाओं का दमन और अंतर्मन को ध्वस्त करते रहने पर मजबूर किए रहते हैं। इसी तरह मन को खारिज करते हुए अपनी विनाशलीला में ही हमें जीने की मोहलत मिलती है, क्योंकि परिवेश से सुलह ही हमारी सुरक्षा की शर्त है।
यदि समय हमारी चेतना की मृत्यु का आकांक्षी है तो हम इस समय को अपना नहीं कहते। बस, इसीलिए हम स्त्रियों का रवैया हो गया-वक्त डाल-डाल तो हम पात-पात। और तभी स्त्री का मन दो पाटों में बँट गया। जो सोचा, वह किया नहीं, जो किया, उसके प्रति कोई रुचि नहीं। उसका सार्वजानिक रूप से किया गया आचरण समझिए कि इस पाखंड़ी समाज के प्रति ढोंग है। अभिनय में उसका कोई सानी नहीं, कबीर जरूर यह बात जानते होंगे, तभी न कहा कि–माया महाठगिनी हम जानी। मगर यह ठग विद्या उसने सीखी कहाँ से? नौकर, दास, गुलाम, मालिक राजा से बहुत कुछ सीख लेता है और उसके अलावा अतिरिक्त चतुराई बरतता है, क्योंकि उसे मालिक का व्यवहार अपनी गुलामी में रहते हुए करना है। इसीलिए औरत का संसार एकदम निजी होता है। वहाँ उससे दासता, एकनिष्ठता और भक्ति-भावना की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। मौका पाते ही वह खुद को अपनी तरह से सँवारने लगती है। अपनी देह में बजते रागों को सुन सुनकर उन्हें मनचाही लय देती है। काया से चुपके-चुपके निकलकर कब दूसरों के भीतर प्रवेश कर जाना है, तय कर लेती है। निर्बाध जलधारा सी खुद को उलीच डालती है, कौन रोक सकता है?
ये एकांत कोने, मन के मठ कहाँ से खोज लिए? वह तो अकेली खाली बर्तन सी बजा करती थी तो कभी छाती के भीतर कँटीला झाड़ उगा हुआ पाती थी। फिर कछुए जैसा कठिन खोल जीवन...सिमटे रहने की तकलीफ में सिकुड़ती हुई किस सफर पर निकल पड़ती है ? जुल्म, क्षमा, भय, और हिम्मत जैसी मानसिक सच्चाइयाँ उसके संग-संग चलती हैं। सफर में जब-जब खून तपता है, वह पसीने के साथ बह उठती है। फिर अपने ही नमक के रंगीन सरोवर में डूब जाती है। परिवारी लोगों ने जाने-पहचाने घावों पर मरहम लगाया था, टेप चिपकाई थी, जिस पर तीन शब्द अतिरिक्त भाषा में लिखे हुए थे-त्याग, प्यार और ममत्व। त्याग का झिलमिलाता शब्द, घर की मालकिन का आदर, बेगारिन का अनकहा अपमान...सब कुछ आँचल में है, मगर उसका अर्थ क्या ? अर्थ है-हर बात में भय!
‘भय ही छोड़ना है’ कहीं से आवाज आई। आकाशवाणी तो देवता करते हैं और देवता स्त्री के विषय में कुछ नहीं जानते। यह आवाज किसी स्त्री की ही हो सकती है। किसकी? रेड इंडियन कवयित्री ज्वाँय हार्जो की-
मैं मुक्त करती हूँ तुम्हें, मेरे सुंदर भीषण भय
मैं मुक्त करती हूँ तुम्हें, तुम थे
मेरे प्रिय और मेरे घृणित जुड़वाँ, पर
अब नहीं पहचानती तुम्हें, जैसे कि खुद को
मैं मुक्त करती हूँ तुम्हें...
उस समूचे दर्द के साथ, जो अनुभव होता
मुझे मेरी बेटियों की मृत्यु पर।
मैं मुक्त करती हूँ तुम्हें, तुम थे
मेरे प्रिय और मेरे घृणित जुड़वाँ, पर
अब नहीं पहचानती तुम्हें, जैसे कि खुद को
मैं मुक्त करती हूँ तुम्हें...
उस समूचे दर्द के साथ, जो अनुभव होता
मुझे मेरी बेटियों की मृत्यु पर।
हाँ, मैं उस भयाक्रांत समय को अपना नहीं
कह सकती थी,
जिसमें ‘बासुमती’ की कहानी (फैसला) न लिख पाती, नन्ही
बालिका
बिन्नी की आँखों में उमड़ती व्यथा को न दर्ज कर पाती। यदि मैं विवश हो
जाती, ‘बिछुड़े हुए’ संन्यासी की पत्नी के द्वारा
अर्जित की
हुई आत्मशक्ति को प्रकट न होने देने के लिए, तो मैं खुद को माफ नहीं कर
पाती। माना कि पतिव्रता का संस्कार टूटा, पती के रहते वैधव्य अनकहे ही
स्वीकार कर लिया, मगर अपने अस्तित्व को बचाते हुए औरत ने व्यक्तित्व तक की
यात्रा की। राय प्रवीण से लेकर आज की सावित्री तक न जाने कितनी स्त्रियाँ
मेरे भीतर अपने समय को तलाश करती हुई या शास्त्रों के कठोर नियमों को धता
बताती हुई...सच मानिए, मेरा इरादा इस बनी-बनाई सांस्कृतिक परंपराओं के लिए
ऐसा विस्फोटक न था, मगर अपनी तरह बनाया हुआ समय कारगर होता गया कि दावेदरी
की इबारत प्रेमगीत की तरह पढ़ी जाए। बेशक बदलाव के चलते यह तुरतदम पुरुष
व्यवस्था में घटित होने का इरादा अवश्य रखता है, किसी खामोश आहट की तरह...
-मैत्रेयी पुष्पा
फैसला
आदरणीय मास्साब,
सादर प्रणाम !
शायद आपने सुन लिया हो। न सुना होगा तो सुन लेंगे। मेरा पत्र तो आज से तीन दिन बाद मिल पाएगा आपको।
चुनाव परिणाम घोषित हो गया।
न जाने कैसे घटित हो गया ऐसा ?
आज भी ठीक उस दिन की तरह चकित रह गई मैं, जैसे जब रह गई थी-अपनी जीत के दिन। कभी सोचा न था कि मैं प्रधान-पद के लिए चुनी जा सकती हूँ।
कैसे मिल गए इतने वोट ?
गाँव में पार्टीबंदी थी। विरोध था। फिर....?
बाद में कारण समझ में आ गया था, जब मैंने सारी औरतों को एक ही भाव से आह्लादित देखा। उमंगों-तरंगों का भीतरी आलोड़न चेहरों पर झलक रहा था।
ब्लॉक प्रमुख की पत्नी होने के नाते घर-घर जाकर अपनी बहनों का धन्यवाद करना जब संभव नहीं हो सका तो मैं ‘पथनवारे’ में जा पहुँची।
आप जानते तो हैं कि हर गाँव में पथनवारा एक तरह से महिला बैठकी का सुरक्षित स्थान होता है। गोबर-मिट्टी से सने हाथों, कंड़ा थापते समय, औरतें अकसर आप बीती भी एक-दूसरे को सुना लेती हैं।
हमारे सुख-दुःखों की सर्वसाक्षी है यह जगह।
वैसे मेरा पथनवारे में जाना अब शोभनीय नहीं माना जाता।
रनवीर ने पहले ही कह दिया था कि गाँव की अन्य औरतों की तरह अब तुम सिर पर डलिया-तसला धरे नहीं सोहतीं। आखिर प्रधान की पत्नी हो।
वे प्रमुख बने तो बंदिशों में कुछ और कसावट आ गई। और जब मैं स्वयं प्रधान बन गई तो उनकी प्रतिष्ठा कई-कई गुना ऊँचे चढ़ गई।
वे उदार और आधुनिक व्यक्तित्व के स्वामी माने जाने लगे। अन्य गाँवों की निगाहों में हमारा गाँव अधिक ऊँचा हो गया। और मैं गाँव की औरतों से दूरी बनाए रखने की हिदायत तले दबने लगी।
पर मेरा मन नहीं मानता था, किसी न किसी बहाने पहुँच ही जाती उन लोगों के बीच।
रनवीर कहते थे, अभी तुम्हारी राजनीतिक उम्र कम है, वसुमती ! परिपक्वता आएगी तो स्वयं चल निकलोगी मान-सम्मान बचाकर।
ईसुरिया बकरियों का रेवड़ हाँकती हुई उधर से आ निकली थी। आप जानते होगे, मैंने जिक्र तो किया था उसका कि वह कितनी निश्चल, कितनी मुखर है।
यह भी बताया था कि मैं और वह इस गाँव में एक दिन ही ब्याहकर आए थे।
आप हँस पड़े थे मास्साब, यह कहते हुए कि नेह भी लगाया तो गड़रिया की बहू से ! वाह बसुमती !
बड़ी चौचीती नजर है उसकी। जब तक मैंने घूँघट उलटकर गाँव के रूख-पेड़ो, घर-मकानों, गली-मोहल्लों को निहारा ही था, तब तक उसने हर द्वार-देहरी की पहचान कर ली। हर आदमी को नाप-जोख लिया। शरमाना-सकुचाना नहीं है न उसके स्वभाव में।
गाँव के ब़ड़े-बुजुर्गों के नाम इस तरह लेती है, जैसे वह उनकी पुरखिन हो। ऊँच-नीच, नाते-रिश्ते, जात-कुजात, के आडंबरो से एकदम मुक्त है।
वह खड़ी-खड़ी आवाज मारने लगी, ‘‘ओ बसुमतिया...! रन्ना की ! रनवीर की दुल्हन ! ओ पिरमुखनी !’’
सब हँस पड़ीं।
बोलीं, ‘‘वसुमती, लो आ गई सबकी अम्मा दादी! टेर रही है तुम्हें। हुंकारा दो प्रधान जी !’’
वह हाथ में पकड़ी पतली संटी फटकारती, बकरियों को पिछियाती हुई हमारे पास ही आ गई।
झमककर बोली, ‘‘पिरधान हो गई अब तौ! चलो, सुख हो गया।’’
किसी ने खास ध्यान नहीं दिया।
संटी उठाकर जोर से बोलने लगी, ‘‘ए, सब जनी सुनो, सुन लो कान खोलके ! बरोबरी का जमाना आ गया। अब ठठरी बँधे मरद माराकूटी करें, गारी-गरौज दें, मायके न भेजें, तो बैन सूधी चली जाना बसुमती के ढिंग।
‘‘लिखवा देना कागद।
‘‘करवा देना नठुओं के जेहल।
‘‘ओ बसुमतिया! तू रनवीरा की तरह अन्याय तो नहीं करेगी? कागद दाब तो नहीं लेगी?
‘‘सलिगा ने हमारे हाथ-पाँव तोरे, तो हमने लीलो के लड़का से तुरंत कागद लिखवाया था कि सिरकार दरबार हमारी गुहार सुनें।
‘‘रनवीर को हमने खुद पकड़ाया था जाकर।
‘‘उन दिनों सालिग हल-हल काँपने लगा था। हाथ तो क्या, उल्टी-सूधी जुबान तक नहीं बोल पाया कई दिनों तक। हमारे जानें रन्ना ने कागद दबा लिया, सालिग सेर बनकें चढ़ा आया छाती पर।
‘‘बोला, ‘जेहल करा रही थी हमारी ? हत्यारी, हमने भी सोच लई कि चाहे दो बकरियाँ बेचनी पड़ें, पर तेरे कागद की ऐसी-तैसी...’ ’’
संटी फेंककर ईसुरिया ने अपनी बाँहें फैला दीं। सलूका उघाड़ दिया, गहरी खरोचों और घावों को देखकर सखियों के होठ उदास हो गए। खिलते चेहरों पर पाला पड़ गया, मास्साब ! हँसी-दिल्लगी ठिठुरकर ठूँठ हो गई।
गोपी ने हँसने का उपक्रम किया।
मुसकराने का अभिनय करती हुई बोली, ‘‘क्या बक रही है तू ? कोई सुन लेगा तो कह न देगा पिरमुख जी से ?’’
वह तुरंत दयनीता से उभर आई।
‘‘सुन ले ! सुनने के लिए ही कह रहे हैं हम। रनवीर एक दिन चाखी पीसेगा, रोटी थोपेगा। और हमारी बसुमती, कागद लिखेगी, हुकुम चलाएगी, राज करेगी।
‘‘है न बसुमती ?
‘‘साँची कहना, तू ग्यारह किलास पढ़ी है न ? और रनवीर नौ फेल ? बताओ कौन होसियार हुआ ?
‘‘अब दिन गए कि जनी गूँगी-बहरी छिरिया-बकरिया की नाई हँकती रहे। बरोबरी का जमाना ठहरा। पिरधान बन गई न बसुमती ? इन्द्रा गाँधी का राज है।
बोलो इन्द्रा गाँधी की जै।’’
गोपी डपटने लगी, ‘‘सिर्रिन, इन्द्रा गाँधी तो कब की मर चुकीं। राजीव गाँधी का राज है। ’’
‘‘मर गईं ?
‘‘चलो, तो भी क्या हुआ ? मतारी-बेटा में कोई भेद होता है सो ? एक ही बात ठहरी।
‘‘क्यों जी, झल्लूस कब निकलेगा ?’’ उसे सहसा याद हो पड़ा।
‘‘रन्ना पिरधान बना था तब कैसी रौनक लगी थी। माला पहराई थीं। झंड़ा लेकर चले थे लोग। रन्ना ने तो कंधा-कंधा चढ़के परिकम्मा की थी गाँव की।’’
सरूपि ने उसे फिर समझाया, ‘‘ओ बौड़म, रन्ना-रन्ना करे जा रही है ? पिरमुख जी सबसे पहले तेरी जेहल कराएँगे।’’
उसने लापरवाही से सिर झटका, ‘‘लो, सुन लो सरूपिया का बातें! रन्ना क्या, तेरा ससुर गजराज भी नहीं कर सकता हमारी जेहल। तेरा जेठ पन्ना भी नहीं कर सकता। है न बसुमती।’’
सादर प्रणाम !
शायद आपने सुन लिया हो। न सुना होगा तो सुन लेंगे। मेरा पत्र तो आज से तीन दिन बाद मिल पाएगा आपको।
चुनाव परिणाम घोषित हो गया।
न जाने कैसे घटित हो गया ऐसा ?
आज भी ठीक उस दिन की तरह चकित रह गई मैं, जैसे जब रह गई थी-अपनी जीत के दिन। कभी सोचा न था कि मैं प्रधान-पद के लिए चुनी जा सकती हूँ।
कैसे मिल गए इतने वोट ?
गाँव में पार्टीबंदी थी। विरोध था। फिर....?
बाद में कारण समझ में आ गया था, जब मैंने सारी औरतों को एक ही भाव से आह्लादित देखा। उमंगों-तरंगों का भीतरी आलोड़न चेहरों पर झलक रहा था।
ब्लॉक प्रमुख की पत्नी होने के नाते घर-घर जाकर अपनी बहनों का धन्यवाद करना जब संभव नहीं हो सका तो मैं ‘पथनवारे’ में जा पहुँची।
आप जानते तो हैं कि हर गाँव में पथनवारा एक तरह से महिला बैठकी का सुरक्षित स्थान होता है। गोबर-मिट्टी से सने हाथों, कंड़ा थापते समय, औरतें अकसर आप बीती भी एक-दूसरे को सुना लेती हैं।
हमारे सुख-दुःखों की सर्वसाक्षी है यह जगह।
वैसे मेरा पथनवारे में जाना अब शोभनीय नहीं माना जाता।
रनवीर ने पहले ही कह दिया था कि गाँव की अन्य औरतों की तरह अब तुम सिर पर डलिया-तसला धरे नहीं सोहतीं। आखिर प्रधान की पत्नी हो।
वे प्रमुख बने तो बंदिशों में कुछ और कसावट आ गई। और जब मैं स्वयं प्रधान बन गई तो उनकी प्रतिष्ठा कई-कई गुना ऊँचे चढ़ गई।
वे उदार और आधुनिक व्यक्तित्व के स्वामी माने जाने लगे। अन्य गाँवों की निगाहों में हमारा गाँव अधिक ऊँचा हो गया। और मैं गाँव की औरतों से दूरी बनाए रखने की हिदायत तले दबने लगी।
पर मेरा मन नहीं मानता था, किसी न किसी बहाने पहुँच ही जाती उन लोगों के बीच।
रनवीर कहते थे, अभी तुम्हारी राजनीतिक उम्र कम है, वसुमती ! परिपक्वता आएगी तो स्वयं चल निकलोगी मान-सम्मान बचाकर।
ईसुरिया बकरियों का रेवड़ हाँकती हुई उधर से आ निकली थी। आप जानते होगे, मैंने जिक्र तो किया था उसका कि वह कितनी निश्चल, कितनी मुखर है।
यह भी बताया था कि मैं और वह इस गाँव में एक दिन ही ब्याहकर आए थे।
आप हँस पड़े थे मास्साब, यह कहते हुए कि नेह भी लगाया तो गड़रिया की बहू से ! वाह बसुमती !
बड़ी चौचीती नजर है उसकी। जब तक मैंने घूँघट उलटकर गाँव के रूख-पेड़ो, घर-मकानों, गली-मोहल्लों को निहारा ही था, तब तक उसने हर द्वार-देहरी की पहचान कर ली। हर आदमी को नाप-जोख लिया। शरमाना-सकुचाना नहीं है न उसके स्वभाव में।
गाँव के ब़ड़े-बुजुर्गों के नाम इस तरह लेती है, जैसे वह उनकी पुरखिन हो। ऊँच-नीच, नाते-रिश्ते, जात-कुजात, के आडंबरो से एकदम मुक्त है।
वह खड़ी-खड़ी आवाज मारने लगी, ‘‘ओ बसुमतिया...! रन्ना की ! रनवीर की दुल्हन ! ओ पिरमुखनी !’’
सब हँस पड़ीं।
बोलीं, ‘‘वसुमती, लो आ गई सबकी अम्मा दादी! टेर रही है तुम्हें। हुंकारा दो प्रधान जी !’’
वह हाथ में पकड़ी पतली संटी फटकारती, बकरियों को पिछियाती हुई हमारे पास ही आ गई।
झमककर बोली, ‘‘पिरधान हो गई अब तौ! चलो, सुख हो गया।’’
किसी ने खास ध्यान नहीं दिया।
संटी उठाकर जोर से बोलने लगी, ‘‘ए, सब जनी सुनो, सुन लो कान खोलके ! बरोबरी का जमाना आ गया। अब ठठरी बँधे मरद माराकूटी करें, गारी-गरौज दें, मायके न भेजें, तो बैन सूधी चली जाना बसुमती के ढिंग।
‘‘लिखवा देना कागद।
‘‘करवा देना नठुओं के जेहल।
‘‘ओ बसुमतिया! तू रनवीरा की तरह अन्याय तो नहीं करेगी? कागद दाब तो नहीं लेगी?
‘‘सलिगा ने हमारे हाथ-पाँव तोरे, तो हमने लीलो के लड़का से तुरंत कागद लिखवाया था कि सिरकार दरबार हमारी गुहार सुनें।
‘‘रनवीर को हमने खुद पकड़ाया था जाकर।
‘‘उन दिनों सालिग हल-हल काँपने लगा था। हाथ तो क्या, उल्टी-सूधी जुबान तक नहीं बोल पाया कई दिनों तक। हमारे जानें रन्ना ने कागद दबा लिया, सालिग सेर बनकें चढ़ा आया छाती पर।
‘‘बोला, ‘जेहल करा रही थी हमारी ? हत्यारी, हमने भी सोच लई कि चाहे दो बकरियाँ बेचनी पड़ें, पर तेरे कागद की ऐसी-तैसी...’ ’’
संटी फेंककर ईसुरिया ने अपनी बाँहें फैला दीं। सलूका उघाड़ दिया, गहरी खरोचों और घावों को देखकर सखियों के होठ उदास हो गए। खिलते चेहरों पर पाला पड़ गया, मास्साब ! हँसी-दिल्लगी ठिठुरकर ठूँठ हो गई।
गोपी ने हँसने का उपक्रम किया।
मुसकराने का अभिनय करती हुई बोली, ‘‘क्या बक रही है तू ? कोई सुन लेगा तो कह न देगा पिरमुख जी से ?’’
वह तुरंत दयनीता से उभर आई।
‘‘सुन ले ! सुनने के लिए ही कह रहे हैं हम। रनवीर एक दिन चाखी पीसेगा, रोटी थोपेगा। और हमारी बसुमती, कागद लिखेगी, हुकुम चलाएगी, राज करेगी।
‘‘है न बसुमती ?
‘‘साँची कहना, तू ग्यारह किलास पढ़ी है न ? और रनवीर नौ फेल ? बताओ कौन होसियार हुआ ?
‘‘अब दिन गए कि जनी गूँगी-बहरी छिरिया-बकरिया की नाई हँकती रहे। बरोबरी का जमाना ठहरा। पिरधान बन गई न बसुमती ? इन्द्रा गाँधी का राज है।
बोलो इन्द्रा गाँधी की जै।’’
गोपी डपटने लगी, ‘‘सिर्रिन, इन्द्रा गाँधी तो कब की मर चुकीं। राजीव गाँधी का राज है। ’’
‘‘मर गईं ?
‘‘चलो, तो भी क्या हुआ ? मतारी-बेटा में कोई भेद होता है सो ? एक ही बात ठहरी।
‘‘क्यों जी, झल्लूस कब निकलेगा ?’’ उसे सहसा याद हो पड़ा।
‘‘रन्ना पिरधान बना था तब कैसी रौनक लगी थी। माला पहराई थीं। झंड़ा लेकर चले थे लोग। रन्ना ने तो कंधा-कंधा चढ़के परिकम्मा की थी गाँव की।’’
सरूपि ने उसे फिर समझाया, ‘‘ओ बौड़म, रन्ना-रन्ना करे जा रही है ? पिरमुख जी सबसे पहले तेरी जेहल कराएँगे।’’
उसने लापरवाही से सिर झटका, ‘‘लो, सुन लो सरूपिया का बातें! रन्ना क्या, तेरा ससुर गजराज भी नहीं कर सकता हमारी जेहल। तेरा जेठ पन्ना भी नहीं कर सकता। है न बसुमती।’’
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